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Dhan Pati Singh Kushwaha

Others

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Dhan Pati Singh Kushwaha

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फिर भी मैं पराई हूॅ॑

फिर भी मैं पराई हूॅ॑

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नर नारी बिन सदा अधूरा, शक्ति बिना शिव भी शव है।

चण्डी रूप शक्तिशाली है, पर नारी अबला तो कब है?

शोषण हुआ बड़ी होने पर, नवरात्रि में तो पूजें सब हैं।

कल तक थी केवल वह पुत्री, पर वह बहू रूप में अब है।

छली गई हूॅ॑ कदम-कदम पर, हर पल पीड़ा से अकुलाई हूॅ॑।

यात्रा अपने घर से-अपने घर की पर ,क्यों फिर भी मैं पराई हूॅ॑?


जन्म लिया जिस घर में मैंने और असीम जहां प्यार मिला।

पाया और बाॅ॑टा सुख मैंने, खड़ा किया खुशियों का किला।

जब जननी-जनक पराया कहते, फिर औरों से कैसे हो गिला?

जाना एक दिन तुझे पराए घर है, हर पल यह अहसास मिला।

बोझ सरीखी समझी गई नित, निशि-दिन ताने सुनती आई हूॅ॑।

यात्रा अपने घर से-अपने घर की पर, क्यों फिर भी मैं पराई हूॅ॑?


बचपन बीता था जिस घर में, वह घर तो मैंने छोड़ दिया।

खून के रिश्तों का साथ छोड़कर, नयों संग नाता मैंने जोड़ लिया।

मात-पिता बन्धु-बहना के, रिश्तों में मैंने अपना मन मोड़ लिया।

सामंजस्य बिठाने के हित, मैंने एक नया लबादा ओढ़ लिया।

हुआ महसूस परायापन यह सुन, कि मैं तो दूजे घर से आई हूॅ॑।

यात्रा अपने घर से-अपने घर की पर, क्यों फिर भी मैं पराई हूॅ॑?


नहीं रुकीं विपदाएं मेरी, और न ही मैं रुक पाईं हूॅ॑।

आप सभी के मानव मन को यह संदेश सुनाने आई हूॅ॑।

नहीं पराया समझें अपने सब जन, अपना तुम्हें बनाने आई हूॅ॑।

प्यार भरा अथाह मेरे दिल में, उसे तुम सबको बाॅ॑टने आई हूॅ॑।

मैं तो खुद हो चुकी तुम्हारी, शक्ति हूॅ॑ और अतुलित बलदाई हूॅ॑।

पूरा प्यार चाहिए सबका, आप की हूॅ॑ मैं बिल्कुल नहीं पराई हूॅ॑।


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