पगडंडी
पगडंडी
ट्रेन में बैठ जब बचपन में, अक्सर देखा करती खिड़की के पार
दिखते ढेर सारे पेड़ और पहाड़, साथ ही दिखती एक छोटी पगडंडी, जो चलती मेरे साथ
मुझे न जाने क्यों पसंद आती वो छोटी सी जंगलों, सड़कों,
पटरियों के किनारे चलती रहने वाली पतली सी रेखा
जो मेरे साथ सरपट दौड़ती रहती
कभी जाकर पहाड़ में मिलती
कभी खूब चौड़ी और मोटी हो जाती
तो कभी जाकर किसी नदी में समा जाती,
और फिर मेरी नजरें ढूंढती तो नदी से निकल मेरे साथ चलने लगती
कभी जंगल में फैली पत्तियों का आवरण ओढ़ लेती,
और लुक-छिपी खेलती,
लेकिन मेरी निगाह ढूंढ ही लेती, मेरी पगडंडी को
जो आगे जाकर किसी गांव में मिल जाती
और लोगों का मार्ग प्रशस्त करती
पगडंडी का विस्तार होता और वो सड़क बन जाती
मेरे साथ चलने वाली गांव की पत्थरों वाली वो कच्ची सड़क
बाहर निकलते ही पगडंडी का स्वरूप ले लेती
और जैसे ही ट्रेन किसी शहर में प्रवेश करती वो कच्ची पगडंडी,
डामर की पक्की सड़क बन जाती ,
निरंतर चलने वाली, पथिकों को रास्ता देने वाली सड़क
जिसका कोई बसेरा नहीं, लोगों को उनके बसेरों तक ले जाने वाली
कभी पगडंडी तो कभी सड़क बन जाती
आज भी ट्रेन में बैठने पर मेरे साथ चलती मेरी पगडंडी
मुझे सड़क से लेकर ऊँचाई तक पहुंचाती है।