पार लगा दो
पार लगा दो
मन रूपी सागर को कैसे बचाऊँ इन विचारों से
भीषण लहरों ने रूप ले लिया विषयों के ज्वारों से।।
जीवन के अनेक विसंगतियों ने, मन पर ऐसा जादू डाला।
मन में उठती कलुषित भावना, हृदय ही मलिन कर डाला।
ह्रदय कठोर हुआ जाता है ,इस जग के बिषमय में व्यवहारों से।।
सत्संगति से जो ज्ञानामृत पाया, पर उसे मैं समझ ना पाया।
सुंदर विचारों को सुनकर भी, जीवन सफल ना बना पाया।
इन अमृत बिंदु को पाकर भी, भ्रमित हो गया आचारों से।।
भक्ति ज्ञान को क्या समझता, ह्रदय द्वार खोल ना सका।
जब तक जीवन का अंत आ गया ,अहंकार को समझ ना सका।
जब तक निज कृपा ना हो तो कैसे छूट सकूं इन विकारों से।।
आशा रूपी दीप भुज रहा, तब भी समर्पित भाव ला न सका।
कोशिश करते करते जीर्ण पड़ गया ,"एकलव्य" जैसा बन ना सका।
हे! नाथ अब तो "नीरज "को पार लगा दो ,लोभ, मोह,मद रूपी असुरों से।।