"पापा.. क्या मैं पराई हूँ..?"
"पापा.. क्या मैं पराई हूँ..?"
"पापा... क्या मैं पराई हूँ..?"
"पापा... आपके घर आँगन में
खुशियां ले कर आई हूँ
कहते है सभी मुझे,
मैं अपनी माँ की परछाई हूँ
घर के कोने-कोने में,
हँसी अपनी सजाई हूँ
"पापा... फिर भी मै पराई हूँ..?
भाई की राजकुमारी,
बहन ने गोद खिलाई हूँ
हुई बड़ी तो, बात-बात पर
दादी से ताना खाई हूँ
क्या ये मेरा घर नही..??
इस बात से मैं घबराई हूँ
"पापा... क्या सच मे, मैं पराई हूँ..??
जाना होगा... दूजे घर, ये भाग्य लिखा कर आई हूँ
बनी दुल्हन, डोली बैठी
हुई अपनो से, आज जुदाई है
अब होगा, मेरा अपना घर
ये सोच कर, मैं हरषाई हूँ
बन बहु, पत्नी किसी की
फिर भी, दूजे घर की कहलाई हूँ
"पापा... क्या यहाँ भी, मैं पराई हूँ..??
उस घर की बेटी, इस घर की बहू
बन हर रिश्ता निभाई हूँ
"पापा... फिर यहाँ, क्यों मैं पराई हूँ..??
दोनों घर का रख कर मान
क्यों..? दोनों घर से बिसराई हूँ
रिश्तों की सब क्यारी सींची
फिर मैं ही क्यो ..? मुरझाई हूँ
मायका हो या ससुराल
"पापा... मैं ही क्यो, पराई हूँ...??