पाबंदी
पाबंदी
कह देती दिल की हर बात
पर इतनी आज़ादी न थी
मिल लेती सरेआम
पर इतनी आज़ादी न थी
चेहरा दिखता था किताबों में
पर लिख देती नाम हर पन्नों पर
पर इतनी आज़ादी न थी
पाता कैसे सानिध्य उनका
घर से निकलने की इजाजत न थी
दौर था वह चिट्ठियों का
प्रेषण भी दुश्वार था
सीधी बात होता कैसे
न फोन की आविष्कार था
मन की बात मन में ही दफन
एक तरफ लोक लाज
दूजे मातृ पितृ सम्मान था
अब जब मैं ब्याह दी गई
फिर आजादियों से ज्यादा
पाबंदियां मिली
हाय री किस्मत की रेखा
सिसकियां जो बची खुची थी
वह भी कुड़ेदान में डाली गई
समय के साथ
जीवन का एक पड़ाव ऐसा भी
बच्चे बडे हुए मेरे अब
तजुर्बा सीख संसार से
मैं भी बच्चों पर
वही पाबंदियां लगाती हूं
शायद और सुनिश्चित तौर पर नहीं
पर कुछ सीखें ऐसी
जिन पाबंदियों से मुझे एतराज रहा
बात बच्चों की आई
तो फिर वही पाबंदियां
मुझे भी अब अच्छी लगी ।