नदी की व्यथा
नदी की व्यथा
मैं सरिता पावन निर्मल
बलखाती बहती अविरल
करती रही धरा को सिंचित
भेद किया न मैंने किंचित
निर्मल सुन्दर मेरी धारा
स्नेह लुटाती रहती सारा
व्यथित बहुत हूं मैं इस जग से
बांध दिया है मुझ को जबसे
कलुष उड़ेला अपना सारा
मैला कचरा डाल अपारा
घुटता दम बहते हैं आँसू
व्यथा बहुत है कहूं मैं कांसू
जीर्ण-शीर्ण मैं होती जाऊँ
फिर भी अविरल बहती जाऊँ
मलिन हुई मेरी जल धारा
सबने मुझसे किया किनारा
माँ कहते-कहते नहीं थकते
मेरी दशा को कभी न तकते
ऐसा न हो मैं थक जाऊँ
बहते-बहते मैं रूक जाऊँ
तब क्या होगा सोचा-विचारा
हृदय मेरा अब हिम्मत हारा ।।