नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
मैं नदी हूँ मुझे सरर सरर बहने दो,
मैं पावन-पवित्र मुझे स्वच्छ रहने दो।
मैं बहती रहूँ अनवरत धरा पर ...
मेरी अपनी पहचान तो बनने दो।
मैं नदी राष्ट्र का गौरव, जीवन दायिनी भी हूँ,
सहती कष्ट अनेकों सबका दुःख दर्द हरती भी हूँ,
जीवित रहूँ मैं सदा वसुंधरा पर बरसों तक,
सरस्वती गंगा यमुना नामों से जानी जाती भी हूँ ।
मैं नदी हूँ मुझे सरर सरर बहने दो,
मैं पावन-पवित्र मुझे स्वच्छ रहने दो।
मैं बहती रहूँ अनवरत धरा पर ....
मेरी अपनी पहचान तो बनने दो।
मैं नदी राष्ट्र का गौरव, जीवन दायिनी भी हूँ,
सहती कष्ट अनेकों सबका दुःख दर्द हरती भी हूँ,
जीवित रहूँ मैं सदा वसुंधरा पर बरसों तक,
सरस्वती गंगा यमुना नामों से जानी जाती भी हूँ ।
इतनी सुन्दर सरल सहज हूँ पर न जाने क्यूँ,
धीरे-धीरे लगता है छोड़ रही अपना किनारा क्यूँ,
कभी तो पल मेरे समीप आकर मुझे निहारो तुम,
वक्त के साथ सूख कर कुम्हला रही हूँ रेत बन क्यूँ ।।
