मज़हबी राह से......
मज़हबी राह से......
मजहबी राह से गुमराह होकर ऐसा है लगता
देश अपना है फिर भी जाने क्यूँ अपना नहीं लगता
चलो इक बार हम भी देश के होकर दे तो देखें
सोच लोगों की बदलते हुए पल भर नहीं लगता
दूर रखकर सियासत से धरम को आजमाएं हम
धर्म को धर्म से मिलते हुए पल भर नहीं लगता
सभी इंसान अपने कर्म और ईमान पर यदि हों
फिर तो इंसानियत को फैलते पल भर नहीं लगता
गले अपनों को न लगाएं तो नज़रों से न गिरने दें
अपने जो हैं पराये बनने में पल भर नहीं लगता
कोई मजहब नहीं हो सकता मेरे मुल्क से बढ़कर
ऐसे मजहब को मिटने में कभी पल भर नहीं लगता
देश में हम नहीं बसते देश हम सब में बसता है
सुनो ‘आजाद’ ऐसे मुल्क को कोई छू नहीं सकता।