मुक्तक
मुक्तक
क्यों कुछ न कहूँ
क्यों चुप मैं रहूँ
मानवता जब मर रही
क्यों ऐसे ही सहूँ।
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जब मुश्किल में जान पड़े तो क्या
जब शातिर को बान पड़े तो क्या
माना होता ठीक नहीं लड़ना
जब सर पे ही आन पड़े तो क्या।
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आग सीने में मगर आँखों में पानी चाहिए
साथ गुस्से के मुहब्बत की रवानी चाहिए
हाथ सेवा भी करें और' उठ चलें ये वक्त पर
ज़ुल्मतों से जा भिड़े ऐसी जवानी चाहिए।
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शेर की हो बात गीदड़ की कहानी देख लो
नब्ज में जमता नहीं किसका है पानी देख लो
दुम दबाना सीखता जो है जवाँ वो कौनसा
हौसले का नाम ही होता जवानी देख लो।
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मैं कहता हूँ मैं सही, तू कहता है तू सही
तू-तू मैं-मैं में चले, दुनिया दारी तो बही
बात जगाने की यहाँ, बाँट रही है नफ़रतें
साच्ची उसको मानते, जो बस खुद ने ही कही।
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इक कहानी रुक गई है इक कहानी और है
है सफ़र बाकी बहुत के जिंदगानी और है।
पौधे जो सींचे ढले हों दरख्तों में वो भले
दौर ये चलता रहे जब बाकि पानी और है।
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भूखा चूल्हा जो जलाए, आग हो
सर्द मौसम से बचाए, आग हो
तीरगी जिसके हो कारण वो नहीं
मन की कालिख जो मिटाए, आग हो।
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समंदर भी गमों के पी जो जाएँ
बहुत ही ख़ास इनकी ये अदाएँ
कहां हैं मौन ये खामोशियाँ भी
ज़रा तू देख तो सुनकर सदाएँ।
