दोहे
दोहे
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शक्तिरूप! धर शक्ति तू, स्वयं बचा ले चीर।
बस दुस्साशन घूमते, मिले न रक्षक वीर।।
दिल-दिल दलदल में धँसा, बहुत भयंकर रूप।
जन-जन के व्यवहार का, अनाचार है भूप।।
संबल खुद का जो रहा, उसकी सब पर जीत।
उसके साहस से हुआ, देखो भय भयभीत।।
दुबके नाहर मांद में, भारी पड़े सियार।
थर-थर थर-थर काँपते, जब भरता हुंकार।।
तेरे बस सम्मान को, माना जग ने मान।
कुचल रहा इस मान को, क्यों होकर अंजान।।
