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मुझे पता नही

मुझे पता नही

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मुझे पता नही,

कब मैं लिखने लगा

और मेरे अन्दर का लावा

बहने लगा और काग़जपर,

कलम से उतरता गया।


शायद मेरे अन्दर का,

दर्द होगा कोई,

जिस से सहजकर,

दिल पिघला होगा मेरा,

मेरे आँसु छलक कर बहे होंगे,

पलको का फासला मिटाते हुए।


किसी के मुँह पर कहने का,

धैर्य नही है मुझमें

आसानी से व्यक्त नही होता मैं,

उन सब बातों को,

लफ्जों में पिरोता ग़या।


हर कोई नहीं ,

होता एक जैसा,

कोई तपाक से बोल देता है,

किसी के ज़बान पर सरस्वती,

वाणी में मिठास।


या मेरी यादों के,

अछूते पन्ने

जिन को मैंने दिल में,

छिपा के रख्खा है

वो खजाना लुटाने के ,

लिये मैं लिखता गया।


शायद मेरे अनुभवों से,

किसी का भला हो जाये,

और आगे ज़िन्दगी की राहपर,

ठोकर लगने से बच जाये।


मेरे खुशियों के वो पल,

जिन्हे सब में ,

बाँटना चाहता हूँ मैं,

आओ आप भी मेरी

खुशियों में शरीक हो जाओ।


शायद मेरे जन्मदाता ,

की याद हो,

उनके ऋणों का कर्ज,

मेरे उपर उधार है,

उस की आंशिक भरपाई,

करना चाहता हूँ।


जानेवाले कभी नहीं आते,

न जाने क्युं ,उन का

संदेश मेरे कलम से,

उजागर हो ज़ाये

जो हमारे लिये ,

प्रेरणादायी हो।

 

मुझे पता नहीं।


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