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ईर्ष्या की जलन

ईर्ष्या की जलन

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कुछ तो ऐसी है बातें बताऊं मैं कैसे

दिल में छिपा है एक कोना दिखाऊ मैं कैसे !


मुकद्दर तो सबका,एक जैसे होता नहीं,

उस को बनाया की बिगाड़ा,समझाऊं मैं कैसे !


मेरी चाहतों का हुजूम बहुत बढ़ गया है,

अतृप्त इच्छा से ,जगी ईर्ष्या छिपा पाऊँ मैं कैसे !


जब देखता दूसरों को जाते उंचाई पर,

जा हम भी सकते थे,पर हुआ नही, छिपाऊँ मैं कैसे !


छुवन की अभिलाषा,दिल में बढ़ गयी थी,

चरित्र वस्र पर दाग पड़ गये धुलाऊँ मैं कैसे !


चाहा था उसे दिलोजान से,सारे जमाने की नाकपर,

होता दूसरों की देख जल गये,झुटलाऊं मैं कैसे !


ज़ख्म भरे नहीं मेरे ,पुराने, घावों के,

नये घाव, सहन कर जीऊं मैं कैसे !


छोटी छोटी बातें,अक्सर मन भटकाती है,

ईर्ष्या पर काबु न पा सके,इलाज कराऊं मैं कैसे !


जलन की आग में तपे हुए थे हम,

अब हमारा मन पानी जैसा घुल जाऊं मैं कैसे।


नियमो पर चलना,आसाँ नहीं होता,

आँख पर पड़ा पर्दा, हटाऊं मैं कैसे!


आग फैलने के बाद,धुआं उठेगा ही,

मुसीबत के जड़ों को,मिटाऊँ मैं कैसे!


"अनिल" की चाह हमेशा है रही,

संजीदगी से जीना,हर एक को सिखाऊं मैं कैसे!!








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