मन
मन
मेरे अंतर्मन में न जाने कितने हैं सवालात
उलझे उलझे हुए हैं खुद में ही धागे बेहिसाब।
मेरे मन की चौखट पे दस्तक दी कुछ अनसूझे भावों ने।
मन के मरुस्थल की कुछ अनकही सी बातों ने।
मन ने मन से मांगा है जवाब अपने सवालों का।
बन गए हैं जो मोती मेरी कविता के भावों का।
मन ने कलम थमाई हाथों में कागज़ के साथ।
मन ने चाहा रच दूं इस पर कुछ अपने अल्फाज़।
मेरे मन की गति तो बस मेरा मन ही जाने।
यहां से वहां भटकता रहता कब मेरी है माने।
मेरे मन के अंदर ही हैं समाए, सब मेरे जज़्बात।
मन के अंतर्मन में जाने कितनी हैं बात।
मौन मन के द्वार पर, मन मौन होकर है खड़ा।
है चतुर भी, है सरल भी, चांदी की रेत सा पड़ा।
ठोकर लगे तो सहमा सा, रोए अपने आप ही।
हो खुशी तो खिल उठे, और पलकें भिगोले आप ही।
मन की तो बस मन ही जाने,
मन तो बस मन की माने।
खुद ही सवाल, और खुद ही जवाब बनाले।
मेरे अंतर्मन को कौन संभाले, ये तो खुद ही गिरकर खुद ही खुद को उठाले।
