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पुनीत श्रीवास्तव

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पुनीत श्रीवास्तव

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मियांईन चाची!

मियांईन चाची!

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एक थी मियांईन चाची 

जो बीड़ी पीती थी,

उनका चलता था ताड़ीखाना 

वो हमारी पड़ोसन थीं,

पोखरे पर था जो घर पुराना 

अगल बगल सबसे याराना 

बचपन बीता बीती जवानी 

समय बीता बात हुई पुरानी 

हां तो, बात मियांईन चाची की 

जो याद आईं आज कैसे ?

कोई बाते बात में जिक्र जो किया 

दारू बीयर त छोड़ द ताड़ी ना मिलता

ताड़ी से जुड़ी चाची 

हमारी मियांईन चाची 


ये बात तब की है जब उन्नीस सौ चलता था 

हम होते थे सात साल के, छोटे भाई चार के 

साल होगा तिरासी चौरासी ,

इंदिरा जी थी या नही याद नही 

पर पक्की याद हैं मियांईन चाची ,

क्यूँ ,क्योंकि काम वो जो भी करती हों 

हम दो भाइयों के लिए जलेबी लाती थीं 

शटर था घर को बंद करने वाला 

उसके अंदर कागज़ में लपेट कर डाल जाती थीं

हम दोनों में छोटे साहब जल्दी उठते थे 

छोटी मोटी खुरापात अकेले ही करते थे 

इसी चक्कर में शटर तक जल्दी पहुँच जाते 

कभी कभी सारी जलेबी ख़ुद ही खा जाते 

इस बात को लगभग पैतीस साल हुए 

बीड़ी से तबाह हुए फेफड़ों की खांसी 

आज याद आ गई ,

कागज में लिपटी जलेबी का भी ख़्याल 

उसी के साथ साथ 

जन्नत में होंगी यकीनन इस वक्त वो भी 

एक सलाम मेरा उन तक पहुँचे आज 

एक थी मियांईन चाची !



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