मिट्टी से बनी नारी
मिट्टी से बनी नारी
माना मिट्टी से बनी मैं नारी सी मूरत हूँ
आग में तपकर तुमको दिन रात खाना
खिलाती हूँ
अपने हाथों से बनाकर तुम को सेहतमंद
बनाती हूँ
मेरी फ़िक्र कभी तो करते तुम
बस यही चाहती हूँ
लेकिन ये क्या, दिन भर करती ही क्या हो
ये ताना सुने जाती हूँ
माना मिट्टी से बनी मैं नारी सी मूरत हूँ
किचन से लेकर घर का सारा काम करती हूँ
सास ससुर से लेकर बच्चों का ध्यान रखती हूँ
तुम ठीक तो हो बस कोई ये पूछे यही तो
चाहती हूँ
लेकिन ये क्या, मैं इतने में ही थक जाती हो
ये ही सुने जाती हूँ
माना मिट्टी से बनी मैं नारी सी मूरत हूँ
शाम को तुम्हारे आने पर तुम्हारे लिए
चाय बनाती हूँ
सुकून के दो पल तुम्हारे साथ बिताना
चाहती हूँ
चाय के दो प्याले साथ लेकर आके बस
तुम्हारे पास बैठ जाती हूँ
लेकिन ये क्या, तुम प्याला लिए छत पर
जा रहे हो यही देखते रह जाती हूँ
माना मिट्टी से बनी मैं नारी सी मूरत हूँ
जान तो मैं अपने माँ पापा की हुआ करती थी
तेरे लिए तो जान को दुश्मन ही बन गई हूँ
तुमने तो अथक मशीन से ज्यादा
कुछ समझा ही नहीं है
लेकिन ये क्या, सब अपने घर में काम करते हैं
ये ही सुने जाती हूँ
माना मिट्टी से बनी मैं नारी सी मूरत हूँ
जिंदगी भर मायके, ससुराल के लिए ही जिया है
सारे ग़म भूलकर आज सिर्फ़ अपने लिए जीना
चाहती हूँ
ऐसा एक दिन मैंने सबको फरमान सुनाया है
लेकिन ये क्या, मैं इंसान नहीं पत्थर हो यही
सुने जाती हूँ
माना मिट्टी से बनी मैं नारी सी मूरत हूँ