महामारी
महामारी
हर तरफ सन्नाटा है,
काली सी बदरी छाई है।
कैसा ये कुदरत का आलम,
फिज़ा में कुछ रुसवाई है।
बंद घरों में छुपे हुए,
बैठे है सब लोग जमीं के।
आसमानों में अब केवल,
पंछियों की ही अगुवाई है।
धरा पे भी अब सिर्फ,
दिखते मासूम जानवर हैं।
इन बेजुबानों को कुछ,
चैन की सांस आयी है।
कुदरत का ये अंदाज तो देखो,
वक़्त की इस मार को देखो।
इंसानों ने की अपने मन की,
अब कुदरत की बारी आई है।
माफ़ करो ऐ जमीं ,
ना होगी फिर से ये भूल।
रहम करो इंसानों पर,
बहुत हुई अब भरपाई है।
देखना चाहती हूं फिर से,
मासूमो को खेलते हुए।
सुनना चाहती हूं उनकी हसीं,
वो रौनक गलियों की,
वो शामे शहरों की,
वो चहाचाहटे, वो मुस्कुराहटें।
वो खिलखिलाना, वो कहकहाना,
वो रौशन से गांव,
बस एक यही सच्चाई है।
ए कुदरत के देवता,
ए मेरे मौला,
ये ही इबादत है,
ये ही प्रार्थना,
करो दूर इस महामारी को,
अब बस तू ही एक दवाई है।
करुणा करो ए भगवान,
अब तेरा ही है सहारा।
बना दो बिगड़े हुए काम,
मैंने दुआ यही मनाई है।
