मेरे गोबिंद
मेरे गोबिंद
मैं बोली गोबिंद के घर है जाना!
वो बोले सज सँवर कर आना।
मैं बोली काहे उड़ीका पावे!
वो बोले ताहीं सफलता पावे।
मैं बोलीं कैसे होगा?
क्यूँ कर्मों का खेल ख़िलावें?
गुरू पास मेरे खड़े,
जो गोबिंद मिलावे।।
ये कैसा खेल रे माँझी!
आप ही नाव, आप ही तूफ़ान, आप ही केवट
फिर आप ही आस लगावे।।
आप ही पानी, आप ही डर- आप ही सहारा
फिर आप ही तमाशा दिखावे।।
वो पहला मेरा “सदगुरु”
फिर कहे- निज घर छोड़ के आवे।।
