मेरा सफ़र
मेरा सफ़र
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बारिशों में चलता गया मैं
अपने हौसलों की छतरी को थामे.
झाड़ियों से निकलते हुए
बचता-बचाता उन साँपों से जो झाड़ियों की आस्तीनों में पलते हैं.
रास्ते के पत्थर भी हो रहे थे चिकने - हो के गीले,
मुझे डर था कि फिसल ना जाऊं
लेकिन मर्यादाओं से बने हुए जूते मज़बूत थे.
मुझे मेरे कामों का मूल्य पता था,
इसलिए रुका नहीं - गीता के श्लोकों की ऊर्जा साथ थी.
और आखिर,
पहुँच ही गया मंज़िल पर
साफ़ हो गया आसमान भी
और मैं देखता रहा
काले से नीले तक का सफर।