मैं हूँ ना
मैं हूँ ना


कौन थी वह
जो रहती थी मेरे घर के
दीवार पर लटकते हुए आईना में
मैं रोज़ देखती उसे
कुछ जाना पहचाना सा
तो कुछ अनजानी सी
उसके अंदर की ख़ाली अंश भी
मेरे भीतर था
टूटने के लिए ख़ाली
शब्दों के क्या आवश्यकता है?
देखती थी मैं
आईने के उस पार
आस्था जितनी
अविश्वास भी उतनी
फिर भी जो बोलना था
वह तो रह गया
आईने में वह ऐसे थी
जैसे डाक में न भेजें जाने वाली
कुवांरी चिट्ठी
बिन पढ़े और बिन जाने
उसकी अंदर की आर्तनाद
मेरे अनुभव के परिधी में
मन्थन कर रही थी
क्या कभी एक प्रतिम्बिब
रोमांचित होती है?
फिर वह मेरे दु:ख को
कैसे अनुभव करती है
मेरे शब्दों को कैसे छू लेती है
ढूंढती रहती अपनी कविता में
मेरे भीतर की नीरवता को
कल जब मेरी पर्दे के पीछे से
एक नया सवेरा आएगा
बहुत कुछ समझने की बीज को लेकर
उसकी साथ मैं भी भोगूँगी
कुछ नया संपर्क की प्यास को
मेरे घर के दीवार पर
लटकती आईने में कौन थी वह
मैं हूँ ना........!