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Surendra kumar singh

Others

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Surendra kumar singh

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मैं और खामोशी

मैं और खामोशी

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मैं रुका, तो खामोशी थी

खामोशी में चला तो

मैंने सुनी अपने ही पैरों की आहट।

जहां जहाँ कदम रुके थे

वहाँ मरघट,

जलती हुयी चिताएँ,

कंधों पर आते हुये शवों का जलूस,

और शवों के आस पास

बजता हुआ कर्णप्रिय संगीत।

एक दिलचस्प आलम

न जिंदगी में उमंग,

न आग में धुआँ,

न आवाज में कशिश,

बस अवाक सा देखता रहा गया मैं।

और अब

शोर की नदी में सुनता रहता हूँ

अपने खामोशी में चले पैरों की आहट।

कुछ भी कहे कोई

कोई मेरी सुने, न सुने

लेकिन मैंने लिखा है एक नाम

बहती हुयी नदी की बेतरतीब लहरों पर।

चल पड़ा हूँ मन्जिल की ओर

हवाओं में सूंघते सूंघते

जिंदगी की आहट और जीने का सूत्र।

समय की कठपुतलियों की फेरहिस्त में

एक नया नाम लिखा है मैंने

मिट्टी के बाजार में।

देख लिया है मैंने

रात की रौशनी में उठता हुआ धुंआ

धुएं में रोशनी की किलकारी

किलकारी में जीवन की सम्भवना

और सम्भावना में

बस एक अदद विश्वास।

एक अदद विश्वास

टूटी हुयी अनगिन आशाओं की जमीन पर।

प्रपंच के आकर्षण का नशा

और उस नशे में, आत्मघात की तैयारी में

जुटे सभ्यता के पुजारी।

एक प्रतिनिधि तरन्नुम से

सा, रे,गा, मा सीखते हमारे आदरणीय महानुभाव।

कितना दिलचस्प है

यहां जगाने वाला जगाते जगाते

सुधि बुद्धि खो जकड़ गया है।

कैसे कैसे सवाल उठे हैं

पुराने सवालों के इतर

ख्वाब की दीपशिखा से।

ख्वाब की इस दीपशिखा से

उठती हुयी रौशनी को बुझाओ

हो सके तो ख्वाब में आग लगाओ।

ठीक है बुरा होता है

बहुत बुरा होता है सपनों का मर जाना

लेकिन जीवन के स्वप्न से कोई

और स्वप्न कितना त्रासद है।

इसलिए जिंदगी के रूबरू हो

स्वीकारो उसकी चुनौती,।

अब थोड़ा खुद को देखो

खुद की सीमाओं को देखो

खुद की मान्यताओं को देखो

देखो,लड़ते लड़ते तुम

जीवन संघर्ष करते करते तुम

उसी जमीन पर खड़े हो

जिसे जितने के लिये निकले थे।

अपनी जमीन को देखो

देखो तुम्हारा अपना दुश्मन

तुम्हे अपने नियंत्रण में लिये बैठा है

कितनी शालीनता और सौम्यता से

बदल डाला है उसने तुम्हारा विचार

अपना लिया है तुम्हारा सिद्धांत

लगा लिया है तुम्हारा मुखौटा

और देने लगा है तुम्हे प्रेरणा

बताने लगा है तुम्हे तुम्हारा दायित्व।

देने लगा है तुम्हे सन्देश

करने लगा है तुम्हारी रहनुमाई।

बन गये हो तुम एक आवाज

कागज का एक खूबसूरत पन्ना।

मैं रुका तो खामोशी थी

चला तो सुनने लगा

अपने ही कदमों की आहट

देने लगा दस्तक अपने ही दरवाजे पर

और यकीन मानो बन्द था

मेरा दरवाजा मेरे लिए भी

नहीं जा सकता था प्रकाश

किसी खिड़की के कोने से

नहीं प्रवेश कर सकती थी हवा

दीवार में किसी सुराख से।

बस तुम्हारे लिए ही मैंने खोल रखी थीं

खिड़कियां दरवाजे रोशनदान

बना रखी थीं सुराखें अपनी ही दीवार में

लेकिन बार बार मैंने ही दस्तक दी

अपने घर मे

बार बार मैं ही टकराया था

अपने घर की दीवारों से।

थकान की स्फूर्ति और आशा

में लहूलुहान मेरा शरीर

तुम्हारे लिये एक अभिकर्ता,

फिर भी मैंने लिख डाला है

एक नाम बहते हुए दरिया में

मैंने बना डाली है एक तस्वीर,

बेचैन रात के सीने में

उठते हुये धुएं में

खामोशी से गुजरते हुए।


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