माँ
माँ
महसूस करती है जैसे ही अपने भीतर,
एक कोमल से अनछुए एहसास को,
अपने लिए अक्सर लापरवाह सी रहने वाली,
अचानक सजग सी हो जाती है वो।
औरों की चिंता में कटता था जिसका हर दिन,
खुद का ख्याल भी रखने लग जाती है वो।
दमकने लगता है चेहरा खुशी की आभा से,
अकेले में भी अक्सर मुस्कुराती है वो।
कभी ऊन और कभी सुई-धागे में पिरो कर,
सहेजने लगती है अपने अथाह प्यार को।
प्राप्त कर अपनी संपूर्णता के अहसास को,
खुद पर थोड़ा इतराती भी है वो।
अपने अंश को अपने सीने से लगाने के लिए,
असहनीय पीड़ा भी खुशी से सह जाती है वो।
अबोध की मूक भाषा को सीख जाती है पढ़ना,
अनकही हर जरूरत को समझ जाती है वो।
सुख-चैन नींदे अपनी सब उस पर वार देती है,
लाड़-दुलार फटकार से भले-बुरे की समझ कराती है वो।
खुद दे देती है सज़ा भी सही राह दिखाने के लिए
पर गैर का एक बोल भी बर्दाश्त नहीं कर पाती है वो।
अपनी इच्छाओं को दबा कर बच्चों को आकाश दिखाती है वो,
उनकी खुशी को समझ अपना जिंदगी बिताती है वो।
फिर जब वक्त आता है कि उसके मौन को समझे उसके बच्चे,
तो खुद को अक्सर न जाने अकेला क्यों पाती है वो।