माफ़ीनामा
माफ़ीनामा
लिख तो दिया मगर
भेज नहीं पायी
के गुज़रते पलों के साथ
तुम्हारी कितनी याद आयी।
हर रोज़ एक बहाना ढूंढती,
तुमसे गुफ़्तगू करने को
बहाने भी कम मिले उसका
अफ़सोस है
जो हो जाती थोड़ी-बहुत
लड़ाइयाँ, कई लम्हें
बेवजह बर्बाद हो जाते,
दिल में बहुत कुछ है...
मगर लफ्ज़ ख़ामोश है।
जैसे रात न बीती मेरी
न दिन गुज़रा ढंग से
ख़ुशियों को जैसे फ़ीका
पड़ता देखा
उदासी के रंग से।
ये सोचती भी हूँ कि थोड़ा
चुप रहती तो अच्छा होता
फिर सोचती हूँ- टूट ही जाता
तुमसे रिश्ता अगर ये
धागा कच्चा होता।
टूटा नहीं है फिर भी उलझ सा
गया है कुछ तो
जुड़ा है कुछ कहीं तो ढीला सा
हुआ है कुछ तो।
रंजिशों की जगह नहीं थी
हमारे दरमियां
ख़्वाहिशों का कारवां सा
बनाया था दुनिया।
ये दूरियों का सिलसिला
कुछ इस तरह चल रहा
जीने का ख़बर नहीं,
बस ज़िन्दगी गुज़र रहा।
भेज पाती अगर अपने
अहसासों को
किसी चिट्ठी के रूप में
बन जाता डाकिया
मेरा संदेश वाहक
ले जाता तुम तक उसे
माफ़ी नामे के स्वरूप में।
बेसब्री की ग़लतियों से
उन ख़ुशियों को नहीं सहेज पायी
लिख तो दिया सब कुछ मगर...
चिट्ठी नहीं भेज पायी।