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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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लक्ष्य-पथ

लक्ष्य-पथ

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क्यों हम राह से भटक जाते है

क्यों मंझदारो में अटक जाते है

गर चले पथ पर निश्चय कर

तो मंजिल के निकट आ जाते है।

कभी खो गए हम नादानी में

कहीं लटक गये खींचातानी में

राह बनानी थी जिस वय में हमे

खो दिए वो पल तो शैतानी में।

यह दुनिया का मंजर है तीखा

उम्र पाकर भी कुछ नही सीखा

जिस डगर पर छोर मिलना है

वो लक्ष है विकट नग सरीखा ।

कभी गुम हुए हम यौवन में

ज्यों कृषक भटका सावन में

क्यों हम आह्लादित है लहरों से

क्या लक्ष्य पा लेंगे इस जीवन मे।

कुछ अध्याय रण के होते है

कुछ कला के कागज होते है

इक पल सुखद मिल जाये तो

क्यों हम अभिमानी बनते है।

इस राह में ठौर अनेक है

मंजिल सबकी ही एक है

कहीं छाव हम पा जाते है

गर कर्म कर सके नेक है।

यहां वीभत्स बंटवारा होता है

सागर का पानी खारा होता है

तपना होता है मीठा बनने को

कंटक रण से निस्तारा होता है।

कभी जात पात में बंट गए

कभी हम मजहबी बन गए

प्रकृति की इस सुखद छांव में

ना जाने क्यों शैतान बन गए।

कभी ऊंच नीच या अपना पराया

पड़ गया क्यों हम पर काला साया

यह भेद दरमियान इंसानों में आया

सोचे खुदा क्यो ऐसा इंसान बनाया।

कभी चकाचौंध मिली राजनीत की

किसने शुरुआत की इस रीत की

रोये धरा अम्बर आज देख हमे

क्या निभाई हमने रस्म कभी प्रीत की।

हम तितली भौंरे इस मधुवन के

महकना था कुसुम बन उपवन के

क्यों काटे एक दूजे के गले हमने

बनने थे भुजंग से चन्दन वन के।

गर चित में चेत की चाह है

तो आसान अब भी राह है

प्रेम की मिल रस्मे बनाये

हर्षित हो मंजिल पा जाए।

ना होने दें निस्तेज तरुणाई को

खून तेरा अभी उबाल मारता है

प्रकृति की तू अनुपम कृति है

क्यो सोच से फिर तू हारता है।

उठ अभी बहुत दूर जाना है

बहुतों को राह में जगाना है

लाती है लहरे जो किनारे पर

अब वैसा तूफान हमको लाना है।।


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