लहरें मिटा रहीं
लहरें मिटा रहीं
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तकलीफ हो या ख़ुशी हर्फ़ ज़्यादा हो जाते हैं
इसी बहाने दुश्मन भी हम प्याला हो जाते हैं
मैं चलता जा रहा था रेत पे बेख्याली में
और समझ रहा था खामोश समन्दर को बेजुबां।
मैं किनारे पे शंखों के हर्फों को सुनता रहा
पीछे लहरें मिटा रहीं थी, मेरे कदमों के निशाँ।
छू लेती है रूह का भी मन बेटियाँ
डांट पिता की कर लेती सहन बेटियाँ
कोई कहता पुत्र है धन कोई राम रतन
पर हैं पिता के हृदय का स्वर्ण बेटियाँ।