लेखनी के दर्द
लेखनी के दर्द


कितने विष और पियूँ मैं
कितना अँधेरा बाँटू मैं और
दर्द लेखनी के सहलाते-सहलाते
कितने घाव झेलूँ और
फिर आकार दूँ एक नए अक़्स को
या निराकार हो जाने दूँ
खो दूँ उसे या रख लूँ बंद कर
पलकों की छाया में सो जाने दूँ
बुन डालूँ सपनों की भाषा
या दिवास्वप्न हो जाने दूँ
फिर बनने दूँ एक हक़ीक़त
या अफ़साना हो जाने दूँ
गुम जाने दूँ रोशनी मन की
अंतर अंधियारा हो जाने दूँ
या फिर हर हृदय के द्वारे
एक दिया जल जाने दूँ
थामे रहूँ प्रकाश की साँसे
समुद्र मंथन हो जाने दूँ
अपने हिस्से का हलाहल पीकर
दर्द लेखनी के सहलाऊँ और
अपने हिस्से का हलाहल पीकर
दर्द लेखनी के सहलाऊँ और