क्या खोया क्या पाया
क्या खोया क्या पाया
वो अल्हड़पन के मौसम बेफिक्री की मस्ती.....
डूबती उतरती पानी में वो क़ागज की कश्ती....
उन कोरी आंँखों का ढलते सूरज का देखना....
पुनः नई आशाओं को भरकर स्वर्णिम किरणों संग जागना..
जीवन का यह खेल कितने रंग दिखाता है..
कोई राजा तो कोई रंक कहलाता है..
इस अबूझे रहस्य को कौन जान पाता है....
चिट्ठा सारा हाथ उसके जो इस ज़मी का भाग्य विधाता है....
कितने ही तथ्यों पर वह तत्व जो टिका है...
उसके खेल के आगे हर जहाँन रंग फ़ीका है....
इस दांँवपेच के पासे में जीतना नहीं ज़रूरी है.....
हार जीत के इस खेल को खेलना भी ज़रूरी है....
बचपन में खेले खिलौनों से यह तो जग जाहिर है.....
पूछ रहा वक्त आज करिश्मा-ए-जंग में तू कितना माहिर है...
कठपुतली के इस नाच में परिस्थितियां जब विषम जटिल हुई.....
मुख्त़सिर सी बात है डोर हाथ में है पतंग सबकी कटी हुई..
शतरंज की चाल है चंद गिनी हुई सांँस हैं....
लफ्जों के मोहरे मात दे गए बिखरे कुछ एहसास हैं...
काजल लगी आंँखों के रोने के निशां चेहरों पर हैं मिलते..
अरे!! तकदीर तो उनकी भी होती है..
ख़्वाहिश भरे जज़्बों के जिनके हाथ नहीं होते।
