कुछ लिखना चाहता हूँ
कुछ लिखना चाहता हूँ


कलम की नोक पर स्याही लगी है,
शब्दों की भी पोटली बँधी है।
कोरे पन्नों को शब्दों का पुष्प बनाता हूँ,
देर से ही मगर कुछ लिखना चाहता हूँ।
घर के आंगन में चहकती चिड़िया से एक धुन पाता हूँ,
बिखरे शहर में सपनो को जोड़े नए चहरो से टकराता हूँ।
गुनगुनाता हर रोज़ बस सुर भूल जाता हूँ,
देर से ही मगर कुछ लिखना चाहता हूँ।
लहरे आती है प्रकोप दिखती हैं डरता नही हूँ,
पुराने जख्मो को देख उन्हें सबक बनाता हूँ।
प्रेम की टूटी कश्ती को मंजिल तक पहुँचाता हूँ,
देर से ही मगर कुछ लिखना चाहता हूँ।
बादल आते है किसी की प्यास तो किसी का आशियाना बहा ले जाते हैं,
किसी को हँसता तो किसी को रोता पाता हूँ।
सबके दर्द का हिस्सा बन जाता हूँ,
देर से ही मगर कुछ लिखना चाहता हूँ।
बगीचे में फूल खिला है काँटों का बिस्तर सजा है,
फूल को देख एक नया हौसला पाता हूँ।
मन में दबे शब्दों को जग में खिलाता हूँ,
देर से ही मगर कुछ लिखना चाहता हूँ।