कृषकःव्यथा
कृषकःव्यथा


जागो रे भैया जागो रे
खेत में हल चलाओ रे
माटी को महकाते हम
धरती को हर्षाते हैं हम
जन क्षुधा का ध्यान रख
श्रम -बिंदु बहाते हैं हम
कर्म ही हमारा जीवन है
फसल ही हमारा धन है।।
खेत जोतते बीज रोपते
श्रमजल से सिंचित करते
गर्मी में हम तपते रहते
वर्षा में भी हंसते रहते
श्रम ही हमारा जीवन है
फसल ही हमारा धन है।।
जग का पोषण करने वाले
मन के हैं हम भोले-भाले
आंधी हो या फिर तूफान
नहीं रुकेगा हमारा आह्वान
कृषि ही हमारा जीवन है
फसल ही ह
मारा धन है।।
सबके लिए हमअन्न उगाते
फिर भी रूखा- सूखा खाते
दर्द के आंसू पीते हैं हम
अभावों में ही जीते हैं हम
परोपकार हमारा जीवन है
फसल ही हमारा धन है।।
सदा कर्ज में हम डूबे रहते
फिर भी अन्न उगाते रहते
चाहे खुद भूखे रह जाएं
जनहित की चिंता करते
अन्न दान हमारा जीवन है
फसल.ही हमारा धन है।।
अन्नदाता कहलाते हैं हम
भाग्य विधाता कहलाते हम
फिर भी कोई चाह नहीं है
मन में आह -कराह नहीं है
मानव सेवा ही जीवन है
फसल ही हमारा धन है।।