कलम मुस्कुराने लगी
कलम मुस्कुराने लगी
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लिखते लिखते कलम मुस्कुराने लगी,
जान पड़ता है तेरा ही नाम आ गया।
हर ग़ज़ल, गीत तेरी कहानी कहे,
जान पड़ता है फिर से वो शाम आ गया।
गीत के बंद हो, पद्य हों, छंद हों,
सारे तुमसे शुरू हो, निखरने लगे।
मुस्कुराने की आदत लगी है इसे,
नाम लिखते ही जैसे बहार आ गया।
गीत लिखता हूँ मैं, नाम लिखता है ये,
कुछ भी कहता हूँ मैं, कुछ और करता है ये,
जैसे वश न चले, मेरा खुद पर मेरे,
हाले दिल और कलम, एक साथ आ गया।
मानो कोमल कपोलें, सुमन बन उठे,
बाट जोहे सुमन का भ्रमर है कोई।
जैसे भँवरा कली के है आगोश में।
वो ही जन्नत इसे भी है रास आ गया।
