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Amit Kumar

Others

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Amit Kumar

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कलम मुस्कुराने लगी

कलम मुस्कुराने लगी

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लिखते लिखते कलम मुस्कुराने लगी,

जान पड़ता है तेरा ही नाम आ गया।

हर ग़ज़ल, गीत तेरी कहानी कहे,

जान पड़ता है फिर से वो शाम आ गया।


गीत के बंद हो, पद्य हों, छंद हों,

सारे तुमसे शुरू हो, निखरने लगे।

मुस्कुराने की आदत लगी है इसे,

नाम लिखते ही जैसे बहार आ गया।


गीत लिखता हूँ मैं, नाम लिखता है ये,

कुछ भी कहता हूँ मैं, कुछ और करता है ये,

जैसे वश न चले, मेरा खुद पर मेरे,

हाले दिल और कलम, एक साथ आ गया।


मानो कोमल कपोलें, सुमन बन उठे,

बाट जोहे सुमन का भ्रमर है कोई।

जैसे भँवरा कली के है आगोश में।

वो ही जन्नत इसे भी है रास आ गया।



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