कलानिधि
कलानिधि
जब तक रजनीश रहता पूर्णिमा में
देता सबको रोशनी।
अवरोही क्रम में जब जब होता
छोड़ देता प्रकाश के छाया की निशानी।
कभी लुप्त होता हैं, मौसम होने पर।
बन जाता है अंधियारा का पतंग।
जब कभी साफ होता है बादल,
वृक्ष के पत्ते डोलने पर।
छोड़ देता है अपना कालिख,
बन के फूलों का पतंग।
मणि है फैला चारों तरफ करता उजियारा।
सबको प्रकाशित करता है।
रात्रि में सो जाता हैं, बादल बनने पर।
धुआं भरी परछाई करता है।
कभी कभी मां भी कहती, चन्दा मामा आये।
रातों में आते हैं बेटा सुबह चले जाते हैं।
कितना समझाऊं उनको भी,
मनमानी वो करते हैं।
