ख़ैरियत
ख़ैरियत

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सब कुछ ठीक-ठाक सा था,
अच्छी कट रही थी ज़िन्दगी;
ना था कोई महबूब अपना…
ना कोई ज़हमत इंतज़ार की !
अपना सा हुआ करता था
उस ज़माने में यह दिल भी;
दर्दे-दिल से जब अनजान थे
दुनिया भी लगती थी भली !
अब तो यूँ लगता है जैसे
हम हैं भी, और नहीं भी
ना अपना हमें कोई होश है
ना ख़बर और किसी की !
आलम बेख़ुदी का है और
ज़माने की उस पे छींटाकशी;
बाज़ आये ऐसी मोहब्बत से
अच्छे थे हम इसके बिना ही !