खामोशी
खामोशी
चुप है यह आसमां, चुप है ज़मीं,
न जाने कितने सपने जुड़े बैठे है,
कितनी ही अॉंखों में कहीं।
अनकही कहानियां,
कह जाती है हवायें।
कोई तो बात है,
जो ढलते सूरज ने है कही।
रात चुपके से,
एक कहानी बनाती है।
दिन के पहलू में,
कई सवाल छोड़ जाती है।
पल-पल समय बदल जाता है।
इंसान उन्हीं कदमों पे कभी आगे,
तो कभी पीछे छूट जाता है।
रास्ते भी दिखाते है, मंजिलें कई।
लेकिन भटकते रहते है, इंसान ।
अपनी ही मंजिल के पास कहीं।
आवाजें ख़ामोश है............?
ख़ामोशीयाॅं है चीख़ती...........!
लेकिन इस भीड़ के कानों तक,
कोई स्वर जाता ही नहीं।
यह सुनती ही नहीं।
बस भाग रहे खुद से।
लेकिन कौन बचता है कहीं।
बहुत भागे है, पहले, तुम भी दौड़ लो।
इन ख़ामोशियों के अर्थो को बोल दो।
जो हैं, वो तो तुम देख सकते हो।
इस भू-क्षीतिज से परे को जान लो।
ख़ामोशियों की भी है, ज़ुबां।
तुम उन्हें शब्दों के नये आयाम दो।
