कड़की
कड़की
फिर से, पचास रुपए पर
आ गई ज़िन्दगी मेरी।
अब तो शक होने लगा,
कभी बदलेगी, ज़िन्दगी मेरी !
बड़ा कठिन है, ज़िन्दगी
को जीना, जीना भी इस तरह,
हो चाहे बहुत कुछ मगर,
काम न आए वो किसी भी तरह।
न जाने, कहां से कुछ लोग,
इस पर भी,
जीने की अदा, सीख लिया
करते हैं,
कर लेते हैं हर मुश्किल
का सामना ,
औरों को भी जीना ,
सिखा दिया करते हैं।
पर अपने लिये, दाना-पानी
जुटाना भी, कभी-कभी
मुश्किल हो जाता है ,
कमी तो नाम मात्र की है,
पर उस पल, सबकुछ
कम सा हो जाता है।
कहां पर, कब, क्या भुला
सा दिया करता हूं ?
मैं भी अपने ही हाथों,
अपना बुरा किया करता हूं।
सच है यारों, जीने का
साधन तो मिल गया,
पर अभी भी हमको
जीना न आया,
देने वाले ने भी
कमी न की,
कमबख्त, हमें ही
संभालना न आया।
