"कबीर पर दोहे"
"कबीर पर दोहे"
कबीर कबीर सभ कहै, जाणै नहीं कबीर।
जाणते ही कबीर को, मिट जावै सभ पीर।।
कबीर न्यारा बासणा, भरो एक ही नीर।
माणस सारे एक सै, मतना खींच लकीर।।
कबीर बाणी सांचली, लखले बन्दे खूब।
जो ना लखे कबीर को, रहे किनारे डूब।।
कबीर केेेवल प्रीत से, होता बेड़ा पार।
डूब प्रीत के रंग म्ह, सपना कर साकार।।
खिलै प्रेम की चांदणी, दमकै सभ घर द्वार।
कबीरा प्रेम डोर से, बंधे सभ नर नार।।
प्रेम जोत अनूप सै, ये करै सरोबार।
कबीरा प्रेमदीप से, हो रोशन संसार।।
कहै कबीरा प्रेम कर, जब लग घट म्ह प्राण।
जीवन भी सुखमय बणे, हो सभका कल्याण।।
कबीर जग म्ह प्रेम का, ना दिखै ओर छोर।
प्रेम प्रीत की डोर तै, मिल जावै नव भोर।।
प्रेम बुद्ध सै ज्योतिबा, सै रैदास कबीर।
भीम प्रेम सै देख लो, बदली सै तकदीर।।
मन म्ह आवै भोत सै, मैं बी बणू कबीर।
कित इतणी औकात सै, सहू जगत की पीर।।