कैद ख़्वाब
कैद ख़्वाब
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नींद चाहती है
पलकों को जबरन बन्द करना,
ताकि बेगुनाह सपनों का बलात्कार
सुप्त मस्तिष्क के आंगन से
कुछ और सपनों का अपहरण करके
किया जा सके सरेआम।
सारी रात आँखे झांकती है
किवाड़ की चीरों से
उजाले की झलक को,
सवेरे होते ही उन्हें
आज़ाद कर दिया जायेगा
ताकि अगली रात फिर से बन सके वो
नींद के गुलाम।
दिनभर आँखे सँजोती है
कुछ नए ख़्वाब,
थमती है कुछ पल
अजनबी मीठे चेहरों पर जाके
सुकूं के दो पल के बाद
फिर वही उदास शाम।
