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Kusum Joshi

Others

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काश कि सूरज निकले नहीं

काश कि सूरज निकले नहीं

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काश! कि सूरज निकले नहीं,

कि चांद ढले नहीं,

अम्बर में तारे यूं ही सजें ,

कि खोएं कहीं नहीं।


कि तारों को गिन गिन ,

भूख को हम भूल जाते हैं,

चंदा को रोटी का टुकड़ा समझ,

हम भूख मिटाते हैं।


जब तक सूरज छिपा था क्षितिज में,

सड़क में घर मिला था हमें,

सूरज की किरणों ने मिलकर धरा से,

बेघर किया हमें।


तम की चादर ने रात भर,

जिस तन को ढाँके रखा,

सूरज की पहली किरण ने निकल,

वो चादर हटा लिया।


काश! कि सूरज की किरणें,

धरती पे पहुँचे कभी नहीं,

अम्बर में तारे यूं ही सजें,

कि खोएं कहीं नहीं।


कि तारों में परियों के,

रथ को सजाकर,

चंदा को खुशियों की ,

डोली में बिठाकर,


हर रात सपनों को,

घर में लाते हैं,

लेकिन सूरज की तीखी चमक में,

वो सपने फीके पड़ जाते हैं।


हर रोज रात में किसी फुटपाथ में,

घर को सजाते हैं,

लेकिन ऐ सूरज तेरे कारण,

घर वो सारे छूट जाते हैं।


काश! कि चंदा जीते सदा,

सूरज के आगे झुके नहीं,

अम्बर में तारे यूं ही सजें,

कि खोएं कहीं नहीं।


तम की चादर से,

आशियाँ बनाकर,

चांदनी की उसमें छप्पर लगाकर,

सुकून में जीवन चले,


फिर से ये दिन,

ना निकले कभी,

कि फिर रोटी की खातिर,

ना हाथ फैलाने पड़े।


जी लेंगे रातों के साए में,

हंसते हसंते उम्र कट जाएगी,

लेकिन उजालों में फटे कपड़ों से,

तन की गरीबी ना बाहर आएगी।


काश कि सूरज मेरी गरीबी के,

अंदर झांके नहीं,

सूरज सदा ही सोता रहे,

कि अब वो जागे नहीं।


काश! कि सूरज निकले नहीं,

कि चांद ढले नहीं,

अम्बर में तारे यूं ही सजें ,

कि खोएं कहीं नहीं।।



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