जिबह का इंतज़ार
जिबह का इंतज़ार
कसाई-बाड़े के सामने
क़ैद हैं पिंजरों में
कई मुर्गे, मुर्गियांँ
और
छोटे-छोटे नादान चूज़े,
वहाँ अंदर से-
बेसाख्ता चीखते,
कटते, छिलते
बोटी-बोटी बनते
टुकड़ों में तुलते
मांस की शक़्ल में
ख़रीदने-बेंचे जाते
थैलों में भरे हुए
साथी या परिवार को ले जाते
देखते हैं
ये ज़िन्दा-क़ैदी परिन्दे-
किस दहशत, किस खौफ़ को
आतंक या पीड़ा को
भोगते हैं ???
घबरा कर एक महफ़ूज़ कोना
खोजते हैं!
बोल सकते नहीं
पंख खोल सकते नहीं
पिंजरा तोड़ सकते नहीं
भय से फटी हैं आँखे
कुछ देर फड़फड़ा के
चुप जाते हैं…
बेहद मजबूर से
टुकड़ों में कट जाने का
इंतज़ार करते
कितने संत्रस्त हैं ?
कैसी विभीषिका झेलते हैं ?
वहाँ से गुज़रते हुए
सिहर जाती हूँ,
डर से बढ़ जाती हैं धड़कने
कानों को दबा के
भागती हूँ वहाँ से
फिर भी…
वो खौफ़ज़दा आँखें
गले में घुट रही फरियादें
बेबसी में टूटती साँसें
दूर तक पीछा करती
आतंक में जकड़ लेती हैं
नींद में भी सुनती हूँ
मर्मभेदी, भयभीत आवाजें
जान का अमान माँगती
लाचार, सिसकती,
ये डरी हुई आँखें,
सहमी सी रुकी-रुकी साँसे
छूटने की बेबस-लाचार मुरादें
इन परिंदों की नहीं…
दबा-ठूँस के, क़ैद मैं भी हूँ
ठीक उसी पिंजरे में
बे-परवाज़, बे-आवाज़
बँधी हुई
कसाई के आने की
आहट सुनती
जिबह हो जाने के
हैबत से ऐंठती
एक-एक धड़कन
एक-एक घड़ियाँ गिनती।