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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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जब सुधियों के पाँव पखारे

जब सुधियों के पाँव पखारे

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बाहर के   रण जीते  हमने, अंदर   के   द्वंदों   से   हारे ।

आँसू-आँसू फूट पड़ा मन, जब सुधियों के पाँव पखारे ।।


अपने दर्द   छुपाकर दिल में,   हमने   मुस्कानों को पाला,

इच्छाओं को भूखा रखकर, आशाओं को दिया निवाला ।

जीवन के   इस   रंगमंच में, पहन  मुखौटा घूमे  हरदम..

बाहर के अभिनय को देखा, अंतर्मन   ने   ताने   मारे...

आँसू-आँसू.............।।


आहत   साँसों के   मृदंग थे, फिर भी गाये गीत प्रणय के ।

रहे बिखरते प्रतिपल लेकिन, रहे सजाते  पृष्ठ  समय के ।

जलते  और   उजाला   देते, डूब गए   जाकर   सागर में,

अब भी तट से कोई सूरज, खड़ा अचम्भित हमें निहारे ।

आँसू-आँसू.............।।


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