जब सुधियों के पाँव पखारे
जब सुधियों के पाँव पखारे
बाहर के रण जीते हमने, अंदर के द्वंदों से हारे ।
आँसू-आँसू फूट पड़ा मन, जब सुधियों के पाँव पखारे ।।
अपने दर्द छुपाकर दिल में, हमने मुस्कानों को पाला,
इच्छाओं को भूखा रखकर, आशाओं को दिया निवाला ।
जीवन के इस रंगमंच में, पहन मुखौटा घूमे हरदम..
बाहर के अभिनय को देखा, अंतर्मन ने ताने मारे...
आँसू-आँसू.............।।
आहत साँसों के मृदंग थे, फिर भी गाये गीत प्रणय के ।
रहे बिखरते प्रतिपल लेकिन, रहे सजाते पृष्ठ समय के ।
जलते और उजाला देते, डूब गए जाकर सागर में,
अब भी तट से कोई सूरज, खड़ा अचम्भित हमें निहारे ।
आँसू-आँसू.............।।
