जाने कबसे.....
जाने कबसे.....
क्या खोज रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर,
क्यूँ जल रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
हर रंग है जीवन में, हर रस भी घुला हुआ सा है,
फिर भी बेरंग-बेरस हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
कुछ परतें चढ़ गई हैं, जो यादो से झड़ती ही नही,
कुरेदता जा रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
मिट्टी बदल रही है तन की, किसी आकर में ढलती ही नही,
खुद को गढ़ रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
क्या खोज रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
जाने वो कौन सी चाहत है, जिसकी मन में आहट है,
मन खटखटा रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
कौन हूँ मैं क्या हूँ मैं पंकज, न बन रहा हूँ न बिगड़ रहा हूँ,
अपनी पहचान खोज रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।
क्या खोज रहा हूँ जाने कबसे, कभी अंदर कभी बाहर।