गुलाब और मैं
गुलाब और मैं
मेरे घर के आंगन में महक उठा नन्हा ग़ुलाब।।
सींचा था देकर इसको मैने जो खाद।।
ताज़गी का कराता ये अहसास
भीनी भीनी खुश्बू इसकी
मन को रोमाँचित कर जाता।।।
मेरे घर के आंगन में महक उठा नन्हा ग़ुलाब।।
सींचा था देकर इसको मैंने जो खाद।।
सुबह सुबह जब उठकर में देखता हूँ इसको
कहता है ये कुछ मुझसे जैसे जन्मो से
अपना कोई बंधन हो।।
बेल बढ़ती चली गई छत के पार
नित नए पुष्पों की आ गई बाढ़।।
देखा जो मैंने ये मन हर्षित हुआ आपार।।
मेरे घर के आंगन में महक उठा नन्हा ग़ुलाब।।
भवरों का गुंजन उस पर
गीत नए सुनाते पक्षी सुबह की पावन बेला पे
महका जाए घर आंगन को अदभुत एक नशा।।।
शान्त मन को फूलों मिला हर पल साथ।।
सींचा था देकर इसको मैने जो खाद।।।।