ग़ज़ल 2
ग़ज़ल 2
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लगता है जी रहे हैं जैसे किसी क़फ़स में
इक पल भी ज़िंदगी का अपने नहीं है बस में
परवाज़ कैसे देगा ख़्वाबों को अपने इंसां
जब टूटती नहीं हैं उससे रिवाज़-ओ-रस्में
सब कुछ तो मिल गया है फिर भी सुकूँ नहीं है
क्या चीज़ खो गई है पाने की इस हवस में
इस ज़िंदगी से आगे क्या और ज़िंदगी है
उलझी हुई है दुनिया सदियों से इस बहस में
रिश्तों से धीरे धीरे उठने लगा भरोसा
क्यों लोग हर क़दम पर खाते हैं झूठी क़समें
मुझसे बिछड़ के उसको रहती है फ़िक्र मेरी
ख़ूबी है कुछ तो आख़िर उस मेरे हमनफ़स में
पिछले बरस न पूछो क्या हाल था हमारा
कीजे दुआ कि आँखें नम हों न इस बरस में
