ग़ज़ल 6
ग़ज़ल 6
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बदली निगाहें वक़्त की क्या-क्या चला गया,
चेहरे के साथ-साथ ही रुतबा चला गया।
मेरी तलब को जिसने समंदर अता किेए,
अफ़सोस मेरे दर से वो प्यासा चला गया।
अबके कभी वो आया तो आएगा ख़्वाब में,
आँखों के सामने से तो कब का चला गया।
बचपन को साथ ले गईं घर की ज़रूरतें,
सारी किताबें छोड़ के बच्चा चला गया।
रिश्ता भी ख़ुद में होता है स्वेटर की ही तरह,
उधड़ा जो एक बार, उधड़ता चला गया।
वो बूढ़ी आँखें आज भी रहती हैं मुंतज़िर,
जिनको अकेला छोड़ के बेटा चला गया।
अपनी अना को बेचके पछताए हम बहुत,
जैसे किसी दरख़्त का साया चला गया।
