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ग़ज़ल 8

ग़ज़ल 8

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सजा है इक नया सपना हमारे मन की आँखों में,
कि जैसे भोर की किरनें किसी आँगन की आँखों में।

शरारत है, अदा है और भोलेपन की ख़ुशबू है,
कभी संजीदगी मत ढूँढिए बचपन की आँखों में।

कहीं झूला, कहीं कजली, कहीं रिमझिम फुहारें हैं,
खिले हैं रंग कितने देखिए सावन की आँखों में।

जो इसके सामने आए सँवर जाता है वो इंसां,
छुपा है कौन-सा जादू भला दरपन की आँखों में।

सुलगती है कहीं कैसे कोई भीगी हुई लकड़ी,
दिखाई देगा ये मंज़र किसी विरहन की आँखों में।

फ़क़ीरी है, अमीरी है, मुहब्बत है, इबादत है,
नज़र आई है इक दुनिया मुझे जोगन की आँखों में।


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