गीत...वीरान हवेली लगती है
गीत...वीरान हवेली लगती है
ये चहल पहल रोनक सारी ,
इंसानों के ही दम पर है ।
इंसान नही जिसमे बसते,
वीरान हवेली लगती है ।।
देखा है कब्रिस्तान कभी ,
खामोश शहर कहलाता है।
लाशें ही लाशें हो हरसूं,
कब किसको वहां सुहाता है।।
जब तक जीवन है,जीवन की ,
हर चहल पहल लासानी है ।
जीवन निकले,निष्प्राण देह,
गुमनाम पहेली लगती है।।
ये चहल पहल रोनक सारी,
इंसानों के ही दम पर है ,
इंसान नही जिसमे बसते ,
वीरान हवेली लगती है ।।
जीवन मेले में खुशियां हैं ,
सब खानपान के साधन हैं।
पग पग पर श्रंगारित करने ,
वाले जैवर ,हरते मन हैं ।।
खिलते फूलों सी खिली हुई,
जिंदगी घूमती मेले में ।
इक वधू चांदनी बिखराती,
सी नई नवेली लगती है ।।
ये चहल पहल रोनक सारी,
इंसानों के ही दम पर है ।
इंसान नही जिसमें बसते,
वीरान हवेली लगती है ।।
जब खुला हुआ मयखाना हो,
मस्ती से भरे नजारे हों ।
पीने वालों के जीवन में ,
साकी हो ,वारे न्यारे हों।।
ऐसे में कर ऐलान अगर,
मालिक मयखाना बंद करे ।
कुर्सियां फकत खाली खाली ,
तब बहुत अकेली लगती है ।।
ये चहलपहल रोनक सारी,
इंसानों के ही दम पर है ।
इंसान नहीं जिसमें बसते,
वीरान हवेली लगती है ।।
हो लाल रंग से रंगा सहन ,
नफरत हो घुली फिजाओं में।
बिखरे हों जीवन की किताब ,
के पन्ने अगर हवाओं में ।।
सूने पलंग सूने बिस्तर ,
सूनी गलियां चौबारे हों ।
कहने दो अभी इधर होकर ,
इक गुजरी रैली लगती है ।।
ये चहल पहल रोनक सारी,
इंसानों के ही दम पर है ,
इंसान नहीं बसते जिसमें ,
वीरान हवेली लगती है ।।
