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Akhtar Ali Shah

Others

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Akhtar Ali Shah

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गीत...वीरान हवेली लगती है

गीत...वीरान हवेली लगती है

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ये चहल पहल रोनक सारी ,

इंसानों के ही दम पर है ।

इंसान नही जिसमे बसते,

वीरान हवेली लगती है ।।


देखा है कब्रिस्तान कभी ,

खामोश शहर कहलाता है।

लाशें ही लाशें हो हरसूं,

कब किसको वहां सुहाता है।।

जब तक जीवन है,जीवन की ,

हर चहल पहल लासानी है ।

जीवन निकले,निष्प्राण देह,

गुमनाम पहेली लगती है।। 

ये चहल पहल रोनक सारी,

इंसानों के ही दम पर है ,

इंसान नही जिसमे बसते ,

वीरान हवेली लगती है ।।


जीवन मेले में खुशियां हैं ,

सब खानपान के साधन हैं।

पग पग पर श्रंगारित करने ,

वाले जैवर ,हरते मन हैं ।।

खिलते फूलों सी खिली हुई,

जिंदगी घूमती मेले में ।

इक वधू चांदनी बिखराती,

सी नई नवेली लगती है ।।

ये चहल पहल रोनक सारी,

इंसानों के ही दम पर है ।

इंसान नही जिसमें बसते,

वीरान हवेली लगती है ।।


जब खुला हुआ मयखाना हो, 

मस्ती से भरे नजारे हों ।

पीने वालों के जीवन में ,

साकी हो ,वारे न्यारे हों।।

ऐसे में कर ऐलान अगर,

मालिक मयखाना बंद करे

कुर्सियां फकत खाली खाली ,

तब बहुत अकेली लगती है ।।

ये चहलपहल रोनक सारी,

इंसानों के ही दम पर है ।

इंसान नहीं जिसमें बसते,

वीरान हवेली लगती है ।।


हो लाल रंग से रंगा सहन ,

नफरत हो घुली फिजाओं में।

बिखरे हों जीवन की किताब ,

के पन्ने अगर हवाओं में ।।

सूने पलंग सूने बिस्तर ,

सूनी गलियां चौबारे हों ।

कहने दो अभी इधर होकर ,

इक गुजरी रैली लगती है ।।

ये चहल पहल रोनक सारी,

इंसानों के ही दम पर है ,

इंसान नहीं बसते जिसमें ,

वीरान हवेली लगती है ।।



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