घर
घर
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इक घर है पुराना सा
कुछ दीवारें हैं,
इक छत है,
बैठा है खुले अब्र के तले।
ताकता रहता है
राह गुज़रते चेहरों को,
बतियाता रहता हैं ख़ुद से
न जाने क्या कहते हैं।
शायद याद करता होगा
रहने वालों को
या सोचता होगा
उस वक़्त को
जब वो भरा भरा रहता था।
अब खिड़कियाँ हैं बस
जो बीच में थोड़ी बहुत
नोक-झोंक कर लेती हैं,
बकती रहती हैं बेमतलब।
ये जिस्म मेरा भी
कुछ उस सा ही लगता है
भरा भरा सा है पर
रहता कोई नहीं उसमें।
सांसें हैं जो
आती जाती हैं
और यूँ ही चलती रहती हैं
धड़कनों की तुकबंदी।
वो घर मुझे
मेरा अपना लगता है,
सड़कों पर बैठा
अपना ही साया लिए।