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पुनीत श्रीवास्तव

Others

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पुनीत श्रीवास्तव

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घर !

घर !

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घर भी रंग बदलते हैं 

खुश होते उदास दिखते हैं 

जिन घरों में लोग रहा करते थे कभी

उनके नही रहने पर बेगाने से लगते हैं 

जो छोड़ के मजबूरियों में


बस गए हैं कहीं बड़े शहर में 

नौकरी या बच्चों की वजह से

वो अनजाने से नए मालिक से

अनजाने लगते हैं


बाबा दादी के घर नाना नानी के घर 

उनकी रूहों में लिपटे

हर किवाड़ हर ताखे में सिमटे 

उन्ही की महक से महकते से लगते हैं 

घर हमारा भी खिलखिला सा उठता है

जब दौड़ते हैं बच्चे हमारे घर के अंदर बाहर 

मिट्टियों से सने नन्हे पावों की मिट्टी से 


खेलते कहीं किसी कमरे में शांति से 

या झगड़गते चिल्ला के जोर से 

बड़ी सी मेज पर सब के साथ 

खाने की खुशबू से

बच्चों के साबुनों के बुलबुलो से

दीवाली सा जगमग होली का रंग में भीगा 


भाइयों के बचपन जवानी और अब इस दौर का साथी 

नई पुरानी बहुओं का नया नया सा 

बूढ़े होते अपने माता पिता की उम्र सा उम्रदराज़ 

सा सबका अपना अपना घर 


सिर्फ कमरों और दीवारों से घिरा

एक रहने का ठिकाना ही नहीम 

भावनाओं का एक युग गुजरता है तब ये घर बनता है

ऐसे ही एक घर में हम भी रहते हैं !


अम्मा बाउजी की मेहनत और

त्याग से बना हमारा भी है एक घर !


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