"ग़ज़ल"
"ग़ज़ल"
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मुसाफिर हो सुनो तुम जिन्दगी से चाहते क्या हो,
सफर में साथ हूँ दीवानगी से चाहते क्या हो।
निकल आये किधर तक साथ हमराही सनम बनकर,
कहो तो आज फिर तुम रहजनी से चाहते क्या हो।
चलो अब छोड़ भी देते सनम तकरार की बातें,
रुको कुछ देर बैठो दोस्ती से चाहते क्या हो।
हमें तुमसे न कुछ कहना समझ लो चाहतें मेरी ,
तुम्हें हम चाहते हैं सादगी से चाहते क्या हो।
अगर तुम रूठ भी जाओ मनाने हम नहीं आते,
रहोगे यूँ अकेले आशिकी से चाहते क्या हो।
कहीं ठहरे अकेले तो तुम्हें मैं याद आऊँगी,
नहीं भूले अगर तो दुश्मनी से चाहते क्या हो।
