ग़ज़ल
ग़ज़ल
रिश्तों को होते बेनक़ाब देखा है मैने
अपने दुश्मनों में अहबाब देखा है मैंने
असली चेहरा पहचानना मुश्किल है
हर चेहरे पे नक़ाब देखा है मैंने
ऊँचाइयों पे इतना गुरुर मत कर
तालाबों में आफ़ताब देखा है मैंने
तुम सपने को हकीक़त समझ रहे हो
ऐसे हज़ारों ख़्वाब देखा है मैंने
बात होती है अच्छे तालीम की वर्ना
चोरों के हाथों मे किताब देखा है मैंने
चार दिन की बात है गुमान क्या करना
ढलते हुये हुस्न-ए-शबाब देखा है मैंने