फ़िर ज़िन्दगी
फ़िर ज़िन्दगी
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अतीत के दुःखते ज़ख़्मों पर ,
अब वक़्त की धूल जमने लगी है।
लगता है शायद अब फ़िर ज़िन्दगी,
अपनी ही रफ़्तार से चलने लगी है।
वेदना भी संवेदना- सी रोयी थी,
जब उन निःशक्त- निःशब्द सिसकियों ने,
धीमे-धीमे सदियों-सी बंधी गाँठें,
अपने ही बेजान हाथों से खोली थीं।
स्मरण-विस्मरण सब जीवन चरण,
इस हास्य-रुदन-जीवन-मरण ,
से भी है परे इस जीवन का उपक्रम।
अतीत के दुःखते ज़ख़्मों पर ,
अब वक़्त की धूल जमने लगी है।
लगता है शायद अब फ़िर ज़िन्दगी,
अपनी ही रफ़्तार से आगे बढ़ने लगी है।