दुनियादारी
दुनियादारी


वो जिन पर दिल हमेशा
नाज़ करता था।
जिनकी छाया में हर पल
महफूज रहता था।
पुकारने की थी देरी, और
वो पास आ जाते।
आज लहू लुहान होने पर भी
कहीं नज़र नहीं आते।
सवालों से घिरे मन को
हमेशा पंख दिए जिसने।
मेरी सोच को हर वक़्त
आवाज़ दिए जिसने।
आज वो मेरे चीखने
पर भी समझ नहीं पाते।
हाथ पकड़ कर जिनके
चलना सीखे थे कभी
आज दो क़दम भी संग
चल नहीं पाते।
वह कौन है, जो हमें
रोक रहा है।
दुनियादारी के जाल में
जकड़ रहा है।
वक़्त क्या सच में इतना
क्रूर हो गया।
या मेरी मासूमियत में ही
कोई कोई दोष हो गया।
या मेरी मासूमियत में ही
कोई दोष हो गया।